शुक्रवार, 21 अगस्त 2009

वर्ण अनुसार स्वभाविक कर्म

हर इन्सान की रक्षक गीता
सात्विक गुण की प्रधानता ब्राह्मणों में हे जिनकी वंशावली की परम्परा परम शुद्ध हे ,जिनके पूर्व जन्म के कर्म भी शुद्ध हें ऐसे ब्राह्मणों के लिए ही शम-दमआ दी गुण स्वाभाविक होते हें यदि किसी में कोई गुण कम हो तो या हो ही नही तो भी ब्राह्मण के लिए इनको प्राप्त करने में किसी प्रकार का कष्ट नही होता वह स्वभाविक तोर पर प्रकट होने लगते हें
चारों वर्णों की रचना उन के स्वाभाविक गुणों के अनुसार ही की गई प्रतीत होती हे गुणों के अनुसार उस -उस वर्ण उनके स्वाभाविक कर्म स्वभाविक रूप में प्रकट हो जाते हें और दुसरे कर्म गोन हो जाते हें जेसे किसी भी मन्दिर में या धार्मिक सत्संगों में हर प्रकार के वर्णों को उनके कर्मों के अनुसार पहिचाना जा सकता हे जेसे इस प्रकार की जगह पर ब्राह्मण प्र्मत्माके तत्व का अनुभव करना चाहेगा शास्त्रों का अध्ययन -अध्यापन स्वाभाविक रूप में करना चाहता हे और किसी के साथ अन्याय होता देख जिस का खून खोळ उठता हे वह क्षत्रिय होता हे यदि ऐसी जगह कोई वेश्य हो गा तो वह अपने जीवन में कितनी भी डंडी मरता रहाहो ,यहाँ सचा व्योपार ही करना चाहता हे तथा शुद्र वर्ण का मनुष्य सब से अधिक सेवा भावना वाला दिखाई देता हे (यदि आप के आस-पास आप ने कभी इस प्रकार का कोई शोध कार्य किया हो तो अपने -अपने अनुभव को टिपणी द्बारा सांझा अवश्य करें -----------------------------आप का आभारी रहुगा ---------धन्यवाद )

बुधवार, 19 अगस्त 2009

अपने धर्म को देखो

यदि मनुष्य अपने ब्राह्मण -क्षत्रिय -वेश्य -और शुद्र के धर्म ,जिस धर्म में भगवान ने मनुष्य का जन्म रूपी पोधा लगा दिया हे के कर्मों कोही यदि कर ले तो इस से बडा और कोई धर्म युक्त युद्घ हो ही नही सकता और न ही कोई और दूसरा कल्याण को देने वाला कर्तव्य ही उस के लिए शेष रह जाता हे हे -पार्थ अपने आप परमात्मा द्वारा प्राप्त इस धर्म चाहे वो हिंदू का हो मुलिम सिख या इसाई का हो चाहे ब्राह्मण हो या क्षत्रिय हो -वेश्य हो या शुद्र ही क्यो न हो इस प्रकार जो प्रभु इछा से प्राप्त धर्म ही स्वर्ग दिलाने वाला होता हे ,इस प्रकार के युद्घ को भाग्यवानलोग ही प्राप्त करते हें
जो लोग धर्म युक्त युद्घ को नही करते वह उस इश्वर के घर स्वधर्म और कीर्ति दोनों कोही खो कर पाप को ही प्राप्त हुआ करता हे तथा लोगों द्वारा बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति आ भी कथन करते हें और माननीय पुरुषों के लिए अपकीर्ति मरण से भी बड़कर होती हे
(यहाँ आप सभी के सहयोग की हम सभी को आवश्यकता हे अतः आप की प्रति-क्रिया की जरूरत हे -------क्या ऐसे महा -परुष आप या आप के आसपास नही हें ? जो अपने उस धर्म को त्याग कर किसी दुसरे के स्वाभाविक -कर्म को अपना चुके हे ?उन को अपने धर्म के लोगों से अपमानित नही होना पड़ता?मेरे एक मित्र का जन्म शुद्र वर्ण में हुआ हे उसके कई रिश्ते दार ऊची-ऊँची प्रसासनिक सेवाओं में अधिकारी के रूप में कार्यरत हें परन्तु अब वह लोग अपने कुल के लोगों से बात करना या उन के दुःख सुख में में साथ देना अपनी तोहीन क्यों समझते हें ? क्या उनको इसी प्रकार की शिक्षा कभी दी गई थी? या उच्च शिक्षा में उन्हों ने ऐसी शिक्षा प्राप्त की थी? जवाब होगा नही फ़िर क्या यह साबित नही होता की हमारी शिक्षा प्रणाली अन्पड-मूर्खों को उच्च पदों पर आसीन कर रही हे?) ऐसे लोगों के रिश्ते दार इनको अपने कुल धर्म -जाती धर्म के धर्म युद्घ से हटा हुआ क्युओं नही मानेगे ? वेरी लोग भी क्या ऐसों के सामर्थ की निंदा करते हुए न करने योग्य बातें नही करते ? फ़िर इससे अधिक दुःख और क्या हो सकता हे ? इसी बात को भगवान अर्जुन को भी कह रहे हें या तो तू इस युद्घ में मारा जा कर स्वर्ग को प्राप्त हो गा या संग्राम जित कर पृथ्वी का राज्य भोगे गा जये-पराजय ,लाभ -हानि ,सुख-दुःख को समान जान कर ,उसके बाद अपने कर्म रूपी युद्घ के लिए तयार होजा इस प्रकार के युद्घ को करने से तुझे पाप भी नही लगे गा

मंगलवार, 11 अगस्त 2009

यह आत्मा

यह आत्मा अव्यक्त हे, यह आत्मा अचिन्त्य और विकार रहित हे अगर इस प्रकार से ही आत्मा को जाना जावे तोभी शोक करना उचित नही हेकिंतु अगर तू आत्मा को सदा जन्म लेने वाली मन कर चलता हे ,तोभी तुझे शोक करना उचित नही हे क्यों की इस मान्यता के अनुसार जन्मे की मृत्यु निश्चित हे फ़िर बे सिर-पैर की बातों का शोक केसा ? हे अर्जुन जन्म से पहले सभी प्राणी आदृश्य थे ,मरने के बाद भी आदृश्य होजाएंगे फ़िर शोक किस बात का ?कोई एक महा पुरुषही इस आत्मा को आश्चर्य की भांति देखता हे और दूसरा इस के तत्व का आश्चर्य से वर्णन करता हे दूसरा जो इसे जानने का असली अधिकारी पुरूष भी इसे आश्चर्य की भांति सुनता हे की ऐसे भी होते हें जिन के पले कुछ भी नही पड़ता
हे अर्जुन यह आत्मा सभी के शरीर में सदा ही रहती हे और यह किसी के द्वारा मरी भी नही जा सकती इस कारण से भी सभी प्राणियों <हाथी-जानवर-मनुष्य-वगेरा-वगेरा >के लिए भी शोक करना नही बनता और अपने क्षत्रिय धर्म को मान कर भी भयभीत होना भी शोभा नही देता क्यों की क्षत्रिय के लिए {ब्रह्मिणको पठन -पाठन वेश्य को उद्योग व्योपार ,और शुद्र को सेवा }धर्म-युक्त कर्म से बडा कल्याण कारी कर्तव्य और क्या हो सकता हे ?


































सोमवार, 10 अगस्त 2009

तत्व ------ज्ञान

झूठ के पांव नही होते सत्य की कोई काट नही होती एक झूठ को सचा साबित करने के लिए छतीस -प्रकार के झूठों का सहारा लेना पड़ता हे सत्य को साबित करने के लिए किसी प्रपंच की जरूरत नही होती इसी प्रकर या सिधांत का अनुसरण तत्व ज्ञानी पुरुषों द्वारा किया जाता हे --------------------------------------------------{१}...........नाश रहित , जिस का किसी भी कल में नाश नही होता --------जिस के द्वारा यह सम्पूर्ण संसार दिखाई देता हे इस अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समर्थ नही हे ........जेसे इस शरीर में रहने वाली आत्मा का नाश नही होता परन्तु चोरासी लाख योनियों का नाश हो ता देखने वाली यह आत्मा अविनाशी हे इसका कभी भी नाश नही होता हे और इन्ही सभी योनियों में सब से श्रेष्ठ मनुष्य योनी को कहा गया हे मनुष्य योनी का भी नाश होना निश्चित हे परन्तु मोक्ष इसी योनी द्वारा ही प्राप्त होना परमात्मा ने तय किया हे ?यहाँ बहुतबडी शंका उत्पन होती हे ,मोक्ष यदि मनुष्य योनी की प्राप्ति से ही होना हे तो इस योनी का सदुपयोग होना चाहिए न की युद्घ --क्योंकि यह भी सुनने में आता हे की ---बहुत ही अच्छे कर्म करने वाले को ही मनुष्य योनी प्राप्त होती हे ----फ़िर युद्घ रूपी कर्म द्वारा कई श्रेष्ठ कर्मो को कर के आए इन मनुष्यों को मार डालना कोनसीबुदि मानी हे ?यहाँ भगवान फ़िर आर्जुन को युद्घ करने कई ही सलाह क्यों दे रहे हें?....................................................अब्त्त्व ज्ञानियों ने इस तत्व कई खोग कई तो पाया कई वस्ती में भगवान द्वारा बताई गयी चोरासी लाख योनियाँ भी हें ---आपभी आनुभव करें अलग -अलग मनुष्यों को पड़ेंकुछ मनुष्यों का स्वभाव शालीनता लिए रहता हे ,वह बडी ही भद्र भाषा का प्रयोग करते हें क्यों कई मनुष्य-कई योनी से आए होते हे वह नित्य इसी प्रकार रहते हों कहना उचित नही होगा कभी न कभी अभद्रता पर वो भी उतरकर अपनी दूसरी योनी को भी प्रकट कर देते हें कारण नाश वान होना ही समझ में आता हे अन्य अध्ययनों में कुछ को क्रूर - हिंसक -निंदा के समर्थक -अहंक -कार से युक्त भी पाया जाता हे ---सभी में सदा इनको इकट्ठा नही देखा गया -एक के बाद दुसरे का परिवर्तन होताही हे कारण वही नाश -वांता इस लिए भी हे भरत वंशियों इस भवसागर रूपी महाभारत में तं उठो और इन से युद्घ करो जो इस आत्मा को मरने वाला समझ ता हे और इस को मरा मानता हे ,वह दोनों ही नही जानते क्यों कि यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारती ही हे न किसी के द्वारा मरी ही जाती हे यह अभी ही नही जन्मती अर्थात अजन्मा हे नित्य हे, सनातन और पुरातन हे शरीर के मरे जाने पर भी यह नही मरती जो इतनी सी बात समझ जाता हे कि आत्मा नाश रहित ,नित्य,अजन्मा,अव्यय हे वो मनुष्य केसे किस को मरवाता हे और केसे किसी को मरता हे ?आत्मा पुराने शरीर को त्याग कर दूसरा शरीर धारण कर लेती हे आत्मा को शस्त्र नही काट सकता- आग जला और जल गला नही सकती वायु सुखा नही सकती क्यों कि यह आत्मा नित्य,सर्वव्यापी ,अचल,स्थिर रहने वाली और सनातन हे <अद्याय २/२४ तक>

शनिवार, 8 अगस्त 2009

हम सब के लिए अर्जुन से कहते भगवान

भगवान ने अर्जुन से कहा तूं ऐसे मनुष्यों के लिए दुखी हो जो बिना भेद भाव सभी के साथ एक सा शुभ व्यवहार करते हों यो भी तब जब उन के प्राण चले गये हों ,आगर उन के प्राण नही गये हें तब उन के लिए दुखी होना या शोक करना कहाँ तक उचित हे नतो कभी तेरा -मेरा और इन राजा- प्रजाओं को कोई इस संसार से लुप्त कर सका हे जेसे जीवात्मा इस शरीर में शिशु अवस्था में प्रकट हो कर बालकपन -जवानी-बुडापा आदि अवस्था में उसी शरीर के बदल जाने पर भी नही बदलती उसी प्रकार हम सभी नही बदलने वाले हम सभी पहले भी थे आज भी हें और आगे भी रहें गे \इस विषय में विकार कर धीर परुष मोहित नही हुआ करते हे कुंती पुत्र --सुख -दुःख की उत्पति तो इन्द्रियों और विषयों के संयोग से हो ती हे इससे कोई अछुता नही रह सकता अतः इस का एक मात्र उप्पय यही हे किउन को तू सहन कर लेकारणयह हे कि श्रेष्ठ पुरूष सुख-दुःख को समान जाना करते हें इन्द्रियों ०र विषयों के संयोग उन को व्याकुल नही करते {वही पुरूष मोक्ष के अधिकारी होते हें }

आत्मा ----- राम

देह एक मन्दिर , जिस में आत्मा की मूर्ति । हृदय इस का स्थान हे , जिस में यह रहती । आत्मा न कभी मरती , ऐसा जाता हे कहा नित घुट-घुट कर मरती आत्मा को , आप ने देखा होगा फ़िर भी यह मरती नही , न कोई इसे मार सका न अग्नि जला सकी , न जल इसे गला ही सका एक देह को छोड़ , दूसरी में प्रवेश कर जाती यही आत्मा ,परमात्मा का अंश कहलाती जेसे तरल के रूप कई , जल पट्रोल मदिरा और दवाई सभी तरल ही कहलाते हें , इसी तरह आत्मा ही परमात्मा कहे जाते हें फ़िर भी लोग ,आश्चर्य से इसे देखते कोई भूतकहता इसे , कोई चुडेल या प्रेत भगवान कहते अर्जुन से , आत्मा परमात्मा का हे यही भेद ....................................................................................................

गुरुवार, 6 अगस्त 2009

श्री कृष्ण ने कहा

मन की हलचल भगवान श्री कृष्ण ने अपनी दयालुता का परिचय इस प्रकार --------------------------------------- दिया जेसे बिजली का बटन दबाते ही पंखा चलने लग जाता हे---- sऋ कृष्ण ने बिना बात को इधर उधर घुमाये अर्जुन के प्रश्न का.ही उतर देना शुरू किया भगवान ने अर्जुन को बताया हे अर्जुन तूंशोक ग्रस्त क्यों हो गया हे ?भले-बुरे केसे लोगों के लिए शोक कर रहा हे तू किसी ऐसे मनुष्य के लिए शोक नही कर रहा जिस के लिए शोक किया जा सकता हो उल्टा पंडितों(विद्वानों)जेसी बातें कर रहा हे विद्वान -पंडित जन जो मर चुके हें या जिनके अभी प्राण नही छूटेहें ,विद्वान लोग उनका शोक नही किया करते ----------------------------------------------------------------------------------------------------- धर्म क्याहे ? बिना जाने । दी हवा धार्मिकता को धार्मिकता की बू को -------खसबू साबित करने की -----------नाकाम कोशिश भी की --------पर सचाई न चुप सकी ------ बनावट के उसूलों से -------क्या ख्श्बू कभी आई हे ---------कागज के फूलों से ------रब एक सच -----बाकि के जब --------इन दोनों को की लोग आजमा चुके हें --------रावण ,ह्र्नाक्श्य्प भी -----------नाशवान दुनिया से जा चुके--------कब तक इस स्काई से मुह छुपाओ गे -----मोट सच हे उसके भी दिन आयें गे ------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

मंगलवार, 4 अगस्त 2009

अंधे की आँख गीता ------------------------------------------ संजय उवाच -----------हे राजन निद्रा को जितने वाले अर्जुन अन्तर्यामी श्री कृष्ण महाराज को इस तरह के वचन कह कर फ़िर से भगवान से साफ -साफ कहते हें की में युद्घ नही करूं गा और फिर चुप हो जाते हें -------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------। विचार योग कुछ बातें यहाँ उजागर होतीं हें यह प्रसंग दोनों सेनाओ के बीच शोकाग्रस्त अर्जुन -कृष्ण के मध्य उत्पन होता हे महा भारत का युद्घ तो सभी की जिन्दगी में उनके जीवन में चलता ही रहता हे भवसागर में रहते हुए इसे जीतना इस के पारउतरना किसी महा भारत से कम नही हे इस महा भारत में धर्म संकट खडा हे जो भवसागर में भी मोजूद हे अर्जुन का धर्म संकट अपनों से था अपनों की रक्षा ,अपनों से प्रेम पूर्वक व्यवहार ,अपनों से उन के ओहदे के अनुसार व्यवहार ,सामाजिक मर्यादा ,वगेरा-वगेरा ऐसे अनेकों धर्मों का जाल फेला हुआ था और अब भी हे अर्जुन यह जानते थे की आतताई को मर देने के धर्म की आज्ञाशास्त्रों में कही गई हे -परन्तु वही सब आतताई यहाँ अपने ही हें ऐसी स्थिति में अर्जुन उहो-पोह में फंस गये निकलने का कोई मार्ग भी नजर नही आता तब वह निश्चित रूप में अपनी हर को सामने देख व्याकुल हो उठते हें कोई साधन न समझ पाने की स्थिति में पहुंच कर अर्जुन श्री कृष्ण को अपना गुरु मान उन्ही से इस विषय पर ज्ञान प्राप्ति का भी अनुरोध करते हें भगवान इसे सहर्ष स्वीकार भी कर लेते हें
,मन को काबू करती गीता , अर्जुन बोले हे मधुसुदन में युद्घ के मैदान में हथियारों को ले करभीष्म-पितामह और द्रोणाचार्य से केसे लडूं यह दोनों ही पूजनीय हें पूजनीय के विरोध में कभी भी नही लडें अगर लड़ना ही हो तो उन के पक्ष में ही लड़ना चाहिए ऐसा ही धर्म शास्त्र भी कहते हें अतः अर्जुन भी कह देते हें की इनके विरोध में लड़ने से तो बेहतर यही होगा की भीख मांग कर जीवनयापन किया जाए इन दोनों में कोन सा साधन ठीक हे मुझे नही पता हे जीको मार कर हम जीना चाहते हें वह भी तो हमारे अपने ही हें मुझ में कायरता का दोष उत्पन हो रहा हे धर्म के विषय मे में भ्रमित सा होरहा हूँ -----------------------------------------में आप से पूछता हूँ की जो साधन निश्चित रूप मे कल्याण करने वालाहो यह मेरे लिए कहिये : क्यों की मे आपका शिष्य हूँ अपनी शरण मे रखते हुए मुझे शिक्षा दीजिये ---------------------------------------------------- अर्जुन इसी दुसरे अध्याये के ७ वें श्लोक मे श्री कृष्ण को अपना गुरु मान लेते हें और आग्रह करते हें की मुझे ज्ञान दें शिक्षा दें मुझे तो कहीं भी कोई ऐसा उपाय नही नजर आता जो मेरे इस दुःख का निवारण कर सके -------------------------------------------(दूसरा अध्याये अब श्री हरी बोलें गे )