शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

दश महाविद्याएं

मनकी शान्ति गीता ,मन की चंचलता गीता ,मन की हलचल गीता ,मन को काबू करती गीता ,मनकी तृप्ति गीता ,सभी की मार्गदर्शक गीता ,तेरी मेरी गीता ,अंधे की आँख गीता ,बुडे -बचे -जवान का सहारा गीता , हर इन्सान की रक्षक गीता ,चिन्तन -मनन का साधन गीता
 भगवान प्रेम के भूखे 

उपनिषदों में आता है-एकाकी न रम्यते। इसका सीधी-सादी भाषा में अर्थ होता है कि भगवान का अकेले में मन नहीं लगा। इसलिए उन्होंने सृष्टि की रचना की। मैं एक ही बहु रूपों से हो जाऊं-ऐसे संकल्प से भगवान ने मनुष्यों का निर्माण किया। इसका तात्पर्य यह है कि मनुष्यों का निर्माण भगवान ने केवल अपने लिए किया है। संसार की रचना चाहे मनुष्य के लिए की हो, पर मनुष्य की रचना तो केवल अपने लिए की है। इसका क्या पता? भगवान ने मनुष्य को ऐसी योग्यता दी है, जिससे वह तत्वज्ञान को प्राप्त करके मुक्त हो सकता है, भक्त हो सकता है, संसार की आवश्यकता की पूर्ति भी कर सके और भगवान की भूख भी मिटा सके, भगवान को भी निहाल कर सके-ऐसी सामर्थ्य भगवान ने मनुष्य को दे दी है और किसी को भी ऐसी योग्यता नहीं दी, देवताओं को भी नहीं दी। भगवान को भूख किस बात की है? भगवान को प्रेम की भूख है। प्रेम भगवान को प्रिय लगता है। प्रेम एक ऐसी विलक्षण चीज है, जिसकी आवश्यकता सबको रहती है। एक आसक्ति होती है और एक प्रेम होता है। किसी से हम अपने लिए स्नेह करते हैं, वह आसक्ति होती है, राग होता है। राग से कामना, इच्छा, वासना होती है, जो पतन करने वाली, नरक में ले जाने वाली है। आसक्ति में लेना होता है और प्रेम में दूसरों को देना होता है। दूसरों को सुख देने की ताकत मनुष्य में है। भगवान ने मनुष्य को इतनी ताकत दी है कि वह दुनिया का हित कर सकता है और अपना कल्याण कर सकता है। इतना ही नहीं, मनुष्य भगवान की आवश्यकता की पूर्ति भी कर सकता है, भगवान का गुरु भी बन सकता है, भगवान का मित्र भी बन सकता है और भगवान की इष्ट भी बन सकता है। जैसे लड़का अलग हो जाए, तो मां-बाप चाहते हैं कि वह हमारे पास आ जाए, ऐसे ही यह जीव भगवान से अलग हो गया है, इसलिए भगवान को भूख है कि यह मेरी तरफ आ जाए! इस भूख की पूर्ति मनुष्य ही कर सकता है, दूसरा कोई नहीं। मनुष्य ही भगवान से प्रेम कर सकता है। देवता तो भोगों में लगे हैं, नारकीय जीव बेचारे दुख पा रहे हैं, चौरासी लाख योनियों वाले जीवों को पता ही नहीं कि क्या करें और क्या न करें? इतना ऊंचा अधिकार प्राप्त करके भी दुख पाता है, तो बड़े भारी आश्चचर्य की बात है। होश ही नहीं है मेरे में कितनी योग्यता है और भगवान ने मेरे को कितना अधिकार दिया है! मैं कितना ऊंचा बन सकता हूं, यहां तक कि भगवान का मुकुटमणि बन सकता हूं! आप कृपा करके ध्यान दें कि कितनी विलक्षण बात है। जितने भक्त हुए हैं मनुष्यों में ही हुए हैं और ऊंचे दर्जे के हुए हैं कि भगवान भी उनका आदर करते हैं। लोग संसार का आदर करते हैं। लोग संसार के आदर को ही बड़ा समझते हैं, पर भक्तों का आदर भगवान करते हैं, कितनी विलक्षण बात है। सारथि बन जाए भगवान! नौकर बन जाएं भगवान! जूठन उठाएं भगवान! घर काम-धंधा करें भगवान! जिस तरह से मां अपने बच्चे का पालन करके प्रसन्न होती है, इसी तरह से भगवान भी अपने भक्त का काम करके प्रसन्न होते हैं। भगवान का भक्तों के प्रति एक वात्सल्य भाव रहता है। जैसे चारे में गोमूत्र या गोबर की गंध भी आ जाए, तो गाय वह चारा नहीं चरती, परंतु अपने नवजात बछड़े को जीभ से चाटकर साफ कर देती है। वास्तव में वह बछड़े को साफ करने के लिए ही नहीं चाटती, इसमें उसे खुद को एक आनंद आता है। उसके आनंद की पहचान यह है कि आनंद आता है। उसके आनंद की पहचान यह है कि अगर आप बछड़े को धोकर साफ कर देंगे, तो गाय का दूध कम होगा और उसका दूध ज्यादा होगा। गाय की जीभ इतनी कड़ी होती है कि चाटते-चाटते बछड़े की चमड़ी से खून आ जाता है, फिर भी गाय छोड़ती नहीं, क्योंकि उसको एक आनंद आता है। ‘वत्स’ नाम बछड़े का है और बछड़े से होने वाला प्रेम ‘वात्सल्य प्रेम’ कहलाता है।

 

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