सोमवार, 1 जून 2009

मनकी शान्ति गीता ,मन की चंचलता गीता ,मन की हलचल गीता ,मन को काबू करती गीता ,मनकी तृप्ति गीता ,सभी की मार्गदर्शक गीता ,तेरी मेरी गीता ,अंधे की आँख गीता ,बुडे -बचे -जवान का सहारा गीता , हर इन्सान की रक्षक गीता ,चिन्तन -मनन का साधन गीता?.........................? आइये अब गीता नामक इस ग्रन्थ को समझने का प्रयास करते हे ,प्रथम अध्याए में ४७ श्लोक हे जिनमे भगवान के मुखारविंद से एक भी श्लोक नही निकला हे सभी श्लोक संजय-और धृतराष्ट्र के ही हे इस पवित्र गीता शास्त्र का हिसा होने से हम इस को भगवान की आज्ञा तो नही मान सकते ठीक वेसे ही जेसे भगवान कृष्ण के मामा -कंस भगवान से बडे हो कर भी उनका पुजनिये हिसा होकर भी पूजने में नही आते पूजे भगवान ही जाते हे इस तरह यह नियम बनता हे की इन सबकी कही बाते सामाजिक लोग यदि न भी मानी जायें तो मनुष्य किसी भी प्रकार से शास्त्र आज्ञा या प्रभु -आज्ञा के उलंघन के दोष से मुक्त हो मुक्ति का अधिकारी होही जाता हे मुक्ति या मोक्ष के मार्ग को स्पष्ट-स्पष्ट दिखा ती गीता को यदि भगवान की वाणी को ही भगवान की आज्ञा मान कर चला जाए तो गीता का भाव ही बदल जाता हे सातवे श्लोक का अर्थ भी अपने आप में अजीब सा भाव दर्शाता हे हे ब्राह्मण श्रेष्ठ !अपने पक्ष में जो प्रधान हे,उनको आप समझ लीजिये !आश्चर्य चकित करता हे कोरव -पांडव ब्रह्मिण थे या क्षत्रिय थे क्या सम्पूर्ण ज्ञानी व्यक्ति ऊंट -घोडे के अंतर को नही जान सकता या उस युग में भी कलयुग की भांति समस्त जातियां गडमड हो गयी होंगी मुझे तो ऐसा ही प्रतीत होता हे !तब-और अब की परिस्थति में ऐसा क्या अंतर रहा हो गा जिसे जान भगवान को अवतार लेने को मजबूर होना पडा होगा यह भी बताती हे गीता !सब कुछ समझ में आने लगता हे यदि उन पात्रों के स्वरूपों की जान कारी हो जाए जिन को श्री कृष्ण ने महांभारत के इस भीषण संग्राम में मरवा या बचा लिया !

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