गुरुवार, 24 दिसंबर 2009

मनकी शान्ति गीता ,मन की चंचलता गीता ,मन की हलचल गीता ,मन को काबू करती गीता ,मनकी तृप्ति गीता ,सभी की मार्गदर्शक गीता ,तेरी मेरी गीता ,अंधे की आँख गीता ,बुडे -बचे -जवान का सहारा गीता , हर इन्सान की रक्षक गीता ,चिन्तन -मनन का साधन गीता

हादसों और त्रासदियों से गुजरते हुए अनुभवों से हम यह जो पहले दिन का सूर्य देख रहे हैं, वह पहले जैसा नहीं है। कुछ नया कह रहा है, कुछ नया पूछ रहा है। सियासतगर्दी और दहशतगर्दी के वार से लहूलुहान जख्म लेकर हमने जो जश्नों से हट कर प्रश्नों से मुकाबला करने की बातें तय की थीं, साल का प्रारंभ उन्हीं सवालों को लेकर खड़ा है। लेकिन नागरिकों के कब्र पर नेता अपने जन्मोत्सव की तैयारियों में मशगूल हैं और हम नया साल मुबारक का मर्सिया पढ़ने में...मशगूल                             सुना देर रात कि लोग नए साल के आगमन का जश्न मनाने सड़कों पर निकल आए हैं... साफ दिखा सत्ता अलमबरदारों के पाप का संताप कम करने के लिए आम आदमी 'जश्न’ की घातक नशीली दवा का लती हो चुका है। पूरी तरह बेहोश... होश दुखदायी असलियत की पीड़ा जो देता है।
कभी नशे में आने, कभी उससे पार पाने की कोशिशों और चिल्लपों से दूर एकांत की तलाश में यूं ही अचानक देर रात गोमती नदी के किनारे मायावती की मूर्ति के पायताने एकांत में गुमसुम बैठे लखनऊ से मुलाकात हो गई। थका हारा निढाल सा लखनऊ का सूक्ष्म शरीर गोमती के इर्द गिर्द बिखरे निर्मम पत्थरों से तय हो रही विकास यात्रा का सच पढ़ने की शायद कोशिश में था। उसी लखनऊ की आत्मा से रात की मुलाकात एक अलग विचार-लोक में ले जाती है। सुख और गौरव के संस्मरणों में भोगे जा रहे वर्तमान की पीड़ा के अजीबोगरीब व्यथा-संसार में। कब सुबह हो गई! कब नया साल आ गया! कब लखनऊ का सूक्ष्म शरीर स्थूल में जा मिला! कब सारा दृश्य एक बार फिर भाव से भौतिक हो गया, पता ही नहीं चला।
बात करने को राजी ही नहीं थे। कई सारे सवाल एक साथ ही पूछ डाले। नए साल का जश्न मनाने वाली भीड़ का तुम हिस्सा तो नहीं? कोई नेतातो नहीं? कोई अपराधी या अधिकारी तो नहीं? फिर रात में गोमती बंधे पर क्यों फिर रहे? ताबड़तोड़ कई सवाल। सूक्ष्म शरीर से स्थूल सवालों की बौछार? इस पर लखनऊ ढीले पड़े। आंखों के भाव बदले। पितृ-भाव से परखा फिर बड़े स्नेह से बगल में बिठाया। इस बार मेरे बिना पूछे ही बोल पड़े, जैसे स्वगत। ...दूर वह श्मशान निहार रहा था... कैसे कैसे श्मशान का विस्तार पूरे शहर पर पसर गया... चौराहों-चौबारों पर लाशें सजने लगीं... कैसा फर्क आया कि पुरखों का सम्मान और अनुसरण करने के बजाय उनकी लाशों की प्रतिकृतियों से हम खूबसूरत पृथ्वी को ढांकने लगे... समाधियों और स्मारक के विस्तार को हम सामाजिक विकास का मानक मानने लगे... जब मुरदे हमारे प्रतीक चिन्ह बन जाएंगे तो जीवन कहां रह जाएगा... इसीलिए तो हमारे प्राण संकट में फंस गए... मैं खुद इसका भुक्तभोगी हूं।लखनऊ के भाव तीखे होते चले गए। कहने लगे। ...समाज का उत्थान मकबरों से शुरू होता देखा है कभी? जीवन के अंत का प्रतीक चिन्ह समाज के जिंदा होने का प्रतीक बन जाए तो क्या होगा? इसीलिए तो भीड़ इतनी निस्तेज दिखती है... कभी सोचा है? लखनऊ खुद बोल पड़ते हैं... सोचा होता तो न इस देश की दुर्दशा हुई होती न मेरी... अंधेरा और स्याह दिखने लगा था। वयोवृद्ध लखनऊ की सांसें तेज होने लगी थीं। भावुकता के ज्वार फूटने लगे थे। वे बुदबुदा रहे थे... शायद हम सबसे ही कह रहे थे...
जब धरा पर धांधली करने लगे पागल अंधेरा/और अमावस धौंस देकर चाट ले सारा सवेरा/तब तुम्हारा हार कर यूं बैठ जाना बुजदिली है पाप है/आज की इन पीढि.यों को बस यही संताप है/अब भी समय है आग को अपनी जलाओ/बाट मत देखो सुबह की प्राण का दीपक जलाओ/मत करो परवाह कोई क्या कहेगा/इस तरह तो वक्त का दुश्मन सदा निर्भय रहेगा/सब्र का यह बांध तुमने पूछ कर किससे बनाया/कौन है जिसने तुम्हें इतना सहन करना सिखाया/तोड़ दो यह बांध बहने दो नदी को/दांव पर खुद को लगा कर धन्य कर दो इस सदी को/मैं समय पर कह रहा हूं और अब क्या शेष है/तुम निरंतर बुझ रहे हो बस इसी का क्लेश है/जो दिया बुझ कर पड़ा हो वह भला किस काम का/यह समय बिल्कुल नहीं है ज्योति के आराम का/आज यदि तुमने अंधेरे से लड़ाई छोड़ दी/तो समझ लो रौशनी की चूड़ियां घर में बिठा कर तोड़ दी...
                                          लखनऊ की आंखों के कोर भींगने लगे थे। मैं उसमें डूबता चला गया। वे कब चले गए और मैं कब ठहर गया, पता ही नहीं चला। तंद्रा अब तक टूटी नहीं है। लखनऊ की आत्मा के स्वर अब भी गूंज रहे हैं। मन तिक्त हो उठा है। कैसे कहें नया साल मुबारक...!

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